रविवार, 2 अगस्त 2009

मित्र तुम्हारे निकट खडा मैं

दोस्तो मैने ये कविता बहुत पहले लिखी थी. मैने इसे जब ब्लोग सुरु किया था तब मैने इसे डाली थी मैं फिर से प्रस्तुत कर रहा हूं क्रिपया अपने विचार व्यक्त करें.

अंतर्मन का अंतर्द्वंद , या अंतर्मन की व्याकुलता !
अंतर्मन करता क्रंदन , या अंतर्मन की आतुरता !

अश्रुहीन अब नेत्र बने , वह पुष्प ह्रदय अब कुम्हलाया !
निस्तेज हुआ वह मुखमंडल , रहती उस पर क़ालि छाया !

तन कृ्शकाय हुआ जाता , मन विचलित हो डूब रहा !
ह्रदय विदीर्ण व्यंग वाणों से , वाणी का रस छूट रहा !

अंतर्मन अब ऐसी ब्यथा को अंतहीन सा पता है,
पाता खुद को अब लक्ष्य्हीन हो दिशाहीन घबराता है !

दिग्भ्रमित हुआ अब अंतर्मन , वह अंतर्कन में टूट रहा !
वह जूझ रहा अंतर्मन से , वह अंतर्मन से पूछ रहा !

वह पूछ रहा अंतर्मन से , तुम क्यों इतने अवसादग्रस्त ,
जब मित्रो का है साथ तुम्हें और मित्र तुम्हारे सिद्धहस्त!

मित्र सुधा हो जीवन में , तब अंतर्मन आह्लाद करे !
पुलकित हो वह नृत्य करे , न लेशमात्र अवसाद रहे !

मित्र तुम्हारे निकट खडा मैं, व्याकुल हूँ करता क्रंदन !
मित्र सुधा की बूँद पिला , अब शांत करो ये अंतर्मन. !

शनिवार, 1 अगस्त 2009

खाली प्याला धुंधला दर्पण

खाली प्याला धुंधला दर्पण

मन में एक अजब सी उदासी
मेरी आँखें कब से प्यासी
कैसा तेरा है ये समर्पण

खाली प्याला धुंधला दर्पण

कब से चाहूं तुझसे मिलना
मेरे दिल का दिल में जलना
कैस ये सावन का पतझड

खाली प्याला धुंधला दर्पण

चली गयी तु झलक दिखाकर
मेरे दिल में आग लगाकर
तेरा कैसा ये आकर्षँण

खाली प्याला धुंधला दर्पण

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

मन के निर्झर बन में , क्यों पुष्प नए खिल जाते

मन के निर्झर बन में , क्यों पुष्प नए खिल जाते.
भंवरे की गुंजन सी कहती खुच बीती बिस्म्रित बातें.

मधुमय मोहमयी थी , मन बहलाने की क्रीड़ा.
अब हृदय हीला देती है , वह मधुर प्रेम की पीडा.

जिस छन देखा मैंने तुमको, बस गयी वो छवी आँखों में.
खिंची लकीर हृदय में , जो अलग रही लाखों में .

जैसे जलनिधि में आकर , किरणे मिलती हैं लहर से ,
वैसा कुछ आभास हुआ , जब नजरें मिली नजर से.

मुखमंडल शशि से सुन्दर , आँचल में चपल चमक सी.
नयनो में श्यामल पुतली, पुतली में श्याम झलक सी.

इन स्याम वॉर्न नयनो में , थी लाखों योवन की लाली.
जैसे मदिरामय हो जाये , संपूर्ण गगन की प्याली.

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

लौट अगर तुम वापस आते

लौट अगर तुम वापस आते !
उर की सारी व्यथा पुरानी,
करुनामय सन्देश की वाणी ,
संचित विरह अंत हो जाते ,


लौट अगर तुम वापस आते !

ग!ता प्राणों का तार तार ,
आँखें देती सर्वस्वा वार,
रोम रोम पुलकित हो जाते,

लौट अगर तुम वापस आते !

छा जाता जीवन में बसंत ,
सब ब्यथा कथा जीवन पर्यंत ,
बन पराग पथ में बिछ जाते ,

लौट अगर तुम वापस आते

रविवार, 5 जुलाई 2009

कुछ कहे बिना , कुछ सुने बिना तुम चले गये बस हांथ छुडाकर

कुछ कहे बिना , कुछ सुने बिना तुम चले गये बस हांथ छुडाकर

कुछ बात अगर हो जाती तो , मन में पीडा ना होती
कुछ मुझको अगर सुनाती तो , आंखें मेरी ना रोती
तुम चुपचाप चले गये बस ,मुझसे अपना साथ छुडाकर

कुछ कहे बिना , कुछ सुने बिना तुम चले गये बस हांथ छुडाकर

दिल में ईक टीस उभरती है, सांसें बस चलती रहती हैं
सुन्दर सुखद सरल छवि तेरी, नयन पटल पर रहती है
तुम चुपचाप चले गये बस, ईस जग से बन्धन तुड्वाकर

कुछ कहे बिना , कुछ सुने बिना तुम चले गये बस हांथ छुडाकर

तेरे आने के खबर से ही

तेरे आने के खबर से ही
मन झूम झूम के गाता है
इक पुरवायी बह उठती
पुलकित हो मुस्काता है
नयनो में बिजली चमके
मुख पे तेज आ जाता है
कण कण झूम उठे जग का
दिग दिग प्रकाश छा जाता है
चांद की बात कहूं क्या मैं
वो खूद मे ही खो जाता है
सब अंधियारा तोड के वो
बस पूरनमासी लाता है

शनिवार, 4 जुलाई 2009

मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं

मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं

है कहीं ब्याकुल धरा से मेघ मिलने को
तो कहिं हिमखन्ड आतुर बूंद बनने को
भ्रमर जैसे कुमुदनि में स्वयम को भूल जाता है
पतन्गा भस्म होने पर भि देखो मुस्कराता है
मैं तुम्हारि आग में तन मन जलाना चाहता हूं

मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं

तुम नहीं थे तब स्वयम से दूर था मैं जा रहा
श्रिष्टि का हर एक कण मुझमे कमीं था पा रहा
तुम ना थे तो कर सकीं थि, प्यार मिट्टि भि न मुझको
पास तुम आये जमाना पास मेरे आ रहा था
फिर समय कि क्रूर गति पर मुस्कराना चाहता हूं

मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं

वो शब्द कहां से लाउं


वो शब्द कहां से लाउं

शब्दों का सन्सार है थोडा
शब्दों का
कार है थोडा
ईन थोडे शब्दों में कैसे
तुझपर गीत बनाउं


वो शब्द कहां से लाउं

सम्तुल्य नहीं कुछ भी तेरे
औ शब्द नहीं हैं पास मेरे
ईस अतुलित सुन्दर्ता, को कैसे
शब्दो मे बतलाउं


वो शब्द कहां से लाउं

मैं कितना हुं एकाकी

मैं कितना हुं एकाकी

विरह आग कि ज्वाला है अब
हर क्षण उर का छाला है अब
सुखद सलोने सपने टुटे
जो देखे थे बनकर साथी

मैं कितना हुं एकाकी

मैं निष्प्राण प्राण है तन में
केवल ब्याकुलता है मन में
सुखद झरोखे टूट गये सब
मौत का आना रह गया बाकी

मैं कितना हुं एकाकी

बुधवार, 1 जुलाई 2009

कौध दामिनी सई स्म्रितिया उर मे आग लगा जाती है

कौंध दामिनी सी स्मृतिया , उर में आग लगा जाती हैं .
सम्मोहन स्वर मन में उभरे , बिरह मेघ जगा जाती हैं.
बिरह मेघ की बूंदों से नयन जलज हो जाते हैं.
सुन्या स्रादिस्य सूखे हृद्यांगन भावों से भर जाते हैं.
भाव भरे जब अंतर्मन में , मन पुलकित हो आह्लाद करे.
शुन्य मिलन हो आज प्रिये , ना अधरों पर अवसाद रहे.
भावभरी उस प्रेम सुधा का , हर पल हर छन पान करे.
कर आलिंगनबद्ध प्रतिग्या , आत्ममिलन का ग्यान करें.
हृदय तुम्हें देती हूँ प्रियतम , बंध कर हृदय मुक्त होते हैं.
देह नहीं है परिधि प्रणय की , दीव्य प्रणय उन्मुक्त होते हैं.


सोमवार, 29 जून 2009

घर की बातें

घर की बातें , घर की चौखट याद करता हूँ.

खेलता था आम की डाली पे जो
नीम की डाली पे सावन का वो झूला !
लहलहाते फूल पीले वो जो सरसों के ,
वो पतंगें वो उमंगें मैं नहीं भूला !
फिर ये मंजर देखने को मैं तरसता हूँ.
घर की बातें ..................................

घर के आँगन में वो पौधा एक तुलसी का ,
हर प्रात उस तुलसी की पूजा मैं नहीं भूला !
मैं नहीं भूला वहां पे लेप मिटटी का ,
शाम के जलाते दिए को मैं नहीं भूला !
इन पलों को इन छनो को मैं संजोता हूँ !!
घर की बातें ...............................

हर रोज गंगा के किनारे सूर्य का ढलना ,
औ चमकते चाँद सा जल मैं नहीं भूला !
मैं नहीं भूला वो बहती दूर जाती नाव को ,
और वो गंगा की कलकल मैं नहीं भूला !
आज भी गंगा किनारा याद करता हूँ !!
घर की बातें ..............................

By my best Friend in English

When i feel the need,
When desires turn to greed
When the dreamz cum in open eyes,
I feel Your breeze as relieving sighs
I question when the harrowing chapter will end
I notice on my forehead veins distend
I enjoy the pain like a masochist
b'coz i know theres always wid me a callused hand
I find solace in the thought
That you are always there to share my loss
And then a credence splurged in my heart
That the victory will be mine with no flaws.

मेरी पहली कविता -- मित्र

अंतर्मन का अंतर्द्वंद , या अंतर्मन की व्याकुलता !
अंतर्मन करता क्रंदन , या अंतर्मन की आतुरता !

अश्रुहीन अब नेत्र बने , वह पुष्प ह्रदय अब कुम्हलाया !
निस्तेज हुआ वह मुखमंडल , रहती उस पर कलि छाया !

तन क्रिस्काय हुआ जाता , मन विचलित हो डूब रहा !
ह्रदय विदीर्ण व्यंग वाणों से , वाणी का रस छूट रहा !

अंतर्मन अब ऐसी ब्यथा को अंतहीन सा पता है,
पता खुद को अब लक्छ्य हीन हो दिशाहीन घबराता है !

दिग्भ्रमित हुआ अब अंतर्मन , वह अंतर्कन में टूट रहा !
वह जूझ रहा अंतर्मन से , वह अंतर्मन से पूछ रहा !

वह पूछ रहा अंतर्मन से , तुम क्यों इतने अवसादग्रस्त ,
जब मित्रो का है साथ तुम्हें और मित्र तुम्हारे सिध्धहस्त!

मित्र सुधा हो जीवन में , तब अंतर्मन आह्लाद करे !
पुलकित हो वह नृत्य करे , न लेशमात्र अवसाद रहे !

मित्र तुम्हारे निकट खडा मैं, व्याकुल हूँ करता क्रंदन !
मित्र सुधा की बूँद पिला , अब शांत करो ये अंतर्मन. !

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