बुधवार, 5 दिसंबर 2012

तुम मुझसे मिलने आ जाओ

तुम मुझसे मिलने आ जाओ
 दूर बहुत हो भान है मुझको
 फिर भी ये अरमान है मुझको
 सपनो में ही आकर मुझपर
 प्रेम सुधा बरसा जाओ
 तुम मुझसे मिलने आ जाओ

 याद तुम्हारी है जीवन में
 फिर भी कुछ खली है मन में
 लेकर अपने आलिंगन में
 प्रेम छवि अंकित कर जाओ
 तुम मुझसे मिलने आ जाओ

 जीवन में अवसाद भरा है
 वक़्त का पहिया घूम रहा है
 चिता में जलने से पहले
 धुल में मिलने से पहले
 अपनी छवि दिखला जाओ
 तुम मुझसे मिलने आ जाओ

बुधवार, 21 नवंबर 2012

यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है


यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है

चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से
चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से
शुरू हुई आराध्य भूमि यह क्लांत नहीं रे राही;
और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग से
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है
अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का।
एक खेप है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,
अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

शुक्रवार, 1 जून 2012

एक बहुत बेहतरीन नया ब्लॉग

हमारे एक  मित्र ने एक नया ब्लॉग  शुरू किया है, कृपया आप लोग उनके ब्लॉग पर आयें और अपनी राय दे कर उनका हौसला बढ़ाये 
ब्लॉग का लिंक नीचे दिया गया है | धन्यवाद 

मंगलवार, 29 मई 2012

परिचय / रामधारी सिंह "दिनकर"


सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं
नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं

समाना चाहता है, जो बीन उर में
विकल उस शुन्य की झनंकार हूँ मैं
भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में
सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं

जिसे निशि खोजती तारे जलाकर
उसीका कर रहा अभिसार हूँ मैं
जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन
अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं

कली की पंखुडीं पर ओस-कण में
रंगीले स्वपन का संसार हूँ मैं
मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं
सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं

मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से
लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं
रुंदन अनमोल धन कवि का, इसी से
पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं

मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का
चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं
पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी
समा जिस्में चुका सौ बार हूँ मैं

न देंखे विश्व, पर मुझको घृणा से
मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं
पुजारिन, धुलि से मुझको उठा ले
तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं

सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा
स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का
प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं

दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा का
दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं
सजग संसार, तू निज को सम्हाले
प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं

बंधा तुफान हूँ, चलना मना है
बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं
कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी
बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं ।।

सोमवार, 7 मई 2012

उड़ चल, हारिल, लिये हाथ में यही अकेला ओछा तिनका।


उड़ चल, हारिल, लिये हाथ में
यही अकेला ओछा तिनका।
उषा जाग उठी प्राची में -
कैसी बाट, भरोसा किन का!
शक्ति रहे तेरे हाथों में -
छूट न जाय यह चाह सृजन की,
शक्ति रहे तेरे हाथों में -
स्र्क न जाय यह गति जीवन की!
ऊपर-ऊपर-ऊपर-ऊपर
बढ़ा चीर चल दिग्मंडल
अनथक पंखों की चोटों से
नभ में एक मचा दे हलचल!
तिनका? तेरे हाथों में है
अमर एक रचना का साधन-
तिनका? तेरे पंजे में है
विधना के प्राणों का स्पंदन!
काँप न यद्यपि दसों दिशा में
तुझे शून्य नभ घेर रहा है,
स्र्क न यदपि उपहास जगत का
तुझको पथ से हेर रहा है

तू मिट्टी था, किन्तु आज
मिट्टी को तूने बाँध लिया है
तू था सृष्टि किन्तु सृष्टा का
गुर तूने पहचान लिया है !
मिट्टी निश्चय है यथार्थ, पर
क्या जीवन केवल मिट्टी है?
तू मिट्टी, पर मिट्टी से
उठने की इच्छा किसने दी है?
आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल का
तू है दुर्निवार हरकारा
दृढ़ ध्वज दण्ड बना यह तिनका
सूने पथ का एक सहारा!
मिट्टी से जो छीन लिया है
वह तज देना धर्म नहीं है,
जीवन साधन की अवहेला
कर्मवीर का कर्म नहीं है!
तिनका पथ की धूल स्वयं तू
है अनंत की पावन धूली-
किन्तु आज तूने नभ पथ में
क्षण में बद्ध अमरता छू ली!
उषा जाग उठी प्राची में -
आवाहन यह नूतन दिन का
उड़ चल हरियल लिये हाथ में
एक अकेला पावन तिनका!


सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन `अज्ञेय'

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

दो लड़के / सुमित्रानंदन पंत

मेरे आँगन में, (टीले पर है मेरा घर) 
दो छोटे-से लड़के आ जाते है अकसर! 
नंगे तन, गदबदे, साँबले, सहज छबीले, 
मिट्टी के मटमैले पुतले, - पर फुर्तीले। 

जल्दी से टीले के नीचे उधर, उतरकर 
वे चुन ले जाते कूड़े से निधियाँ सुन्दर- 
सिगरेट के खाली डिब्बे, पन्नी चमकीली, 
फीतों के टुकड़े, तस्वीरे नीली पीली 
मासिक पत्रों के कवरों की, औ\' बन्दर से 
किलकारी भरते हैं, खुश हो-हो अन्दर से। 
दौड़ पार आँगन के फिर हो जाते ओझल 
वे नाटे छः सात साल के लड़के मांसल 

सुन्दर लगती नग्न देह, मोहती नयन-मन, 
मानव के नाते उर में भरता अपनापन! 
मानव के बालक है ये पासी के बच्चे 
रोम-रोम मावन के साँचे में ढाले सच्चे! 
अस्थि-मांस के इन जीवों की ही यह जग घर, 
आत्मा का अधिवास न यह- वह सूक्ष्म, अनश्वर! 
न्यौछावर है आत्मा नश्वर रक्त-मांस पर, 
जग का अधिकारी है वह, जो है दुर्बलतर! 

वह्नि, बाढ, उल्का, झंझा की भीषण भू पर 
कैसे रह सकता है कोमल मनुज कलेवर? 
निष्ठुर है जड़ प्रकृति, सहज भुंगर जीवित जन, 
मानव को चाहिए जहाँ, मनुजोचित साधन! 
क्यों न एक हों मानव-मानव सभी परस्पर 
मानवता निर्माण करें जग में लोकोत्तर। 
जीवन का प्रासाद उठे भू पर गौरवमय, 
मानव का साम्राज्य बने, मानव-हित निश्चय। 

जीवन की क्षण-धूलि रह सके जहाँ सुरक्षित, 
रक्त-मांस की इच्छाएँ जन की हों पूरित! 
-मनुज प्रेम से जहाँ रह सके,-मावन ईश्वर! 
और कौन-सा स्वर्ग चाहिए तुझे धरा पर?

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल,


लोहे के पेड़ हरे होंगे,
तू गान प्रेम का गाता चल,
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर,
आँसू के कण बरसाता चल।
सिसकियों और चीत्कारों से, 
जितना भी हो आकाश भरा,
कंकालों क हो ढेर, 
खप्परों से चाहे हो पटी धरा ।
आशा के स्वर का भार,
पवन को लेकिन, लेना ही होगा,
जीवित सपनों के लिए मार्ग
मुर्दों को देना ही होगा।
रंगो के सातों घट उँड़ेल, 
यह अँधियारी रँग जायेगी,
ऊषा को सत्य बनाने को 
जावक नभ पर छितराता चल।
आदर्शों से आदर्श भिड़े,
प्रज्ञा प्रज्ञा पर टूट रही।
प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है,
धरती की किस्मत फूट रही।
आवर्तों का है विषम जाल, 
निरुपाय बुद्धि चकराती है,
विज्ञान-यान पर चढी हुई 
सभ्यता डूबने जाती है।
जब-जब मस्तिष्क जयी होता,
संसार ज्ञान से चलता है,
शीतलता की है राह हृदय,
तू यह संवाद सुनाता चल।
सूरज है जग का बुझा-बुझा,
चन्द्रमा मलिन-सा लगता है,
सब की कोशिश बेकार हुई, 
आलोक न इनका जगता है,
इन मलिन ग्रहों के प्राणों में
कोई नवीन आभा भर दे,
जादूगर! अपने दर्पण पर
घिसकर इनको ताजा कर दे।
दीपक के जलते प्राण, 
दिवाली तभी सुहावन होती है,
रोशनी जगत् को देने को 
अपनी अस्थियाँ जलाता चल।
क्या उन्हें देख विस्मित होना,
जो हैं अलमस्त बहारों में,
फूलों को जो हैं गूँथ रहे
सोने-चाँदी के तारों में।
मानवता का तू विप्र!
गन्ध-छाया का आदि पुजारी है,
वेदना-पुत्र! तू तो केवल 
जलने भर का अधिकारी है।
ले बड़ी खुशी से उठा,
सरोवर में जो हँसता चाँद मिले,
दर्पण में रचकर फूल,
मगर उस का भी मोल चुकाता चल।
काया की कितनी धूम-धाम! 
दो रोज चमक बुझ जाती है;
छाया पीती पीयुष, 
मृत्यु के उपर ध्वजा उड़ाती है ।
लेने दे जग को उसे,
ताल पर जो कलहंस मचलता है,
तेरा मराल जल के दर्पण
में नीचे-नीचे चलता है।
कनकाभ धूल झर जाएगी, 
वे रंग कभी उड़ जाएँगे,
सौरभ है केवल सार, उसे 
तू सब के लिए जुगाता चल।
क्या अपनी उन से होड़,
अमरता की जिनको पहचान नहीं,
छाया से परिचय नहीं,
गन्ध के जग का जिन को ज्ञान नहीं?
जो चतुर चाँद का रस निचोड़ 
प्यालों में ढाला करते हैं,
भट्ठियाँ चढाकर फूलों से 
जो इत्र निकाला करते हैं।
ये भी जाएँगे कभी, मगर,
आधी मनुष्यतावालों पर,
जैसे मुसकाता आया है,
वैसे अब भी मुसकाता चल।
सभ्यता-अंग पर क्षत कराल, 
यह अर्थ-मानवों का बल है,
हम रोकर भरते उसे, 
हमारी आँखों में गंगाजल है।
शूली पर चढ़ा मसीहा को
वे फूल नहीं समाते हैं
हम शव को जीवित करने को
छायापुर में ले जाते हैं।
भींगी चाँदनियों में जीता, 
जो कठिन धूप में मरता है,
उजियाली से पीड़ित नर के 
मन में गोधूलि बसाता चल।
यह देख नयी लीला उनकी,
फिर उनने बड़ा कमाल किया,
गाँधी के लोहू से सारे,
भारत-सागर को लाल किया।
जो उठे राम, जो उठे कृष्ण, 
भारत की मिट्टी रोती है,
क्या हुआ कि प्यारे गाँधी की 
यह लाश न जिन्दा होती है?
तलवार मारती जिन्हें,
बाँसुरी उन्हें नया जीवन देती,
जीवनी-शक्ति के अभिमानी!
यह भी कमाल दिखलाता चल।
धरती के भाग हरे होंगे, 
भारती अमृत बरसाएगी,
दिन की कराल दाहकता पर 
चाँदनी सुशीतल छाएगी।
ज्वालामुखियों के कण्ठों में
कलकण्ठी का आसन होगा,
जलदों से लदा गगन होगा,
फूलों से भरा भुवन होगा।
बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी, 
मूर्त्तियाँ एक दिन बोलेंगी,
मुँह खोल-खोल सब के भीतर 
शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल।

बुधवार, 18 जनवरी 2012

चाँद और कवि

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ,
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे-
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

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