गुरुवार, 21 जुलाई 2016

दलित समाज अब मृत पशु नहीं उठाएगा।

दलित समाज अब मृत पशु नहीं उठाएगा। यह बात अब तक एक दर्जन सवर्ण और ओबीसी मित्रो के वॉल पर देख चुका हूंं। यह जो लोग लिख रहे हैं, वास्तव में उनकी मुराद क्या है? क्या वे दलितों का हक मार कर अपने परिवार के साथ चमड़े के व्यावसाय में उतरना चाहते हैं। वैसे भी एक ब्राम्हण शौचालय के कारोबार पर पहले से ही 'ग्लोबली' कब्जा किए बैठा है। कहीं चमड़े का कारोबार कब्जा करने की यह कोई ब्राम्हणवादी साजिश तो नहीं है।. . अब मैं अपने तरफ की बात बताता हूँ .. आज से यही कोई 6-7 साल पहले बदलाव आना शुरू हुआ.. इससे पहले जब भी हमारे यहाँ कोई मवेशी मरता था तो इसकी सुचना रविदास(महार) लोगों तक पहुँचाई जाती थी.. वो लोग जैसा मवेशी का साइज़ उसी हिसाब से आते थे.. वैसे नॉर्मली 4 जन तो आते ही थे .. कुछ पैसे लेते थे.. दो बोतल महुआ का दाम लेते थे और एक-एक पैला चावल। ... कन्धे में उठा के गाँव से बाहर ले जा उसका चीर-फाड़ करते थे। .. चमड़ा उतार के साथ में ले जाते थे। लेकिन 6-7 साल पहले परिवर्तन आना शुरू हुआ .. और इसकी शुरुआत हुई भेण्डरा पंचायत से बाबूलाल रविदास के मुखिया बनने के बाद।.. ये महाशय महाराष्ट्र में बहुत दिन रहे थे.. तो प्रभाव था इनके ऊपर जे भीम वालों का। .. मुखिया बनते ही ऐलान करवा दिया कि कोई रविदास भाई किसी के यहाँ 'मोरी' (जानवरों के लाश) उठाने नहीं जाएगा.. आखिर तुमलोग ऐसी घिसी-पिटी जिंदगी कब तक जियोगे ? कब तक ऐसे ही लोगों के घरों में जा जा के मोरी उठाते रहोगे ? .. उनके जानवर है , वो खुद देखे.. हमने उठाने का ठेका ले रखा है क्या ? किसी को नहीं जाना है किसी के घर मोरी उठाने। इसका असर भी हुआ.. कोई नहीं आने लगा मोरी उठाने । मेरे घर में गाय मरी .. हमने हाल भिजवाया रविदास के घर, कोई नहीं आया.. बाद में अपने छोटे भाई को उसके घर भेजा.. तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया कि 'अब हमलोगों ने मोरी उठाना बन्द कर दिया है.. हम नहीं जा सकते!' .. अब घर की गाय मरी है.. ऐसे ही फेंक नहीं सकते .. तो हमलोग ही सभी भाई मोरी उठाये और गाँव के बाहर ले जा के गड्ढा खोद के उसमें दफना दिए.. और लोग भी वैसे ही करने लगे। कुछ दिन बाद एक मियां जी आये .. बोले कि 'आपलोग ऐसे काहे दफना देते हैं मोरी को.. हमको दे दीजिये.. हम इसका यूज़ करेंगे .. आखिर इससे पहले आपलोग रविदास लोगों को तो देते ही थे.. वही हमें दे दीजिये.. हम तो कोनो पैसा-वैसा और चावल भी नहीं लेंगे.. बस जब भी कोई मवेशी मरे हमको सिर्फ एक बार फोन कर दीजियेगा.. हम आ जायेंगे।' .. लोगों को मियां जी की बात जँची.. जब भी कोई मवेशी मरता.. उसको फोन कर देते .. वो उठा के ले जाता ! पहले तो वो रिक्शा में उठा के ले जाता था.. लेकिन अब उसके ऑटो-रिक्शा है.. दो हेल्पर भी है.. फोन करते ही दनदनाते हुए हाज़िर हो जाते है। . तो क्या है कि मियां जी इसे 'बिजनेस' का शक्ल दिया.. और कामयाब भी रहे.. जो चीज रविदास भाइयों को अस्पृश्य बनाती थी.. जिसके लिए वो खुद भी हीन-भाव से ग्रसित होते थे, और इसको हटाने के लिए अपने परम्परागत कार्य को छोड़ा उसको एक मियां जी हाथ लपक के अवसर के तौर पे अपनाया .. और आज वो सक्सेस है। वैसे ही और भी कितने ही ऐसे कार्य थे जिसके चलते इन सब का पेट चलता था.. रोजगार के कारण थे.. उनको हीन-कार्य.. हीन-कार्य बोल के उनमें हीनता भरा गया.. और ज़बर भरा गया.. इतना भरा गया कि उसने अपना काम करना ही छोड़ दिया.. फिर उसके छोड़े हुए कार्य को मियां लोगों ने हाथों हाथ लपका! और उस क्षेत्र में कामयाब भी रहे। ..आज जूता-चप्पल, पंक्चर से लेकर चमड़े तक में उन सब की धाक है.. जो पहले हमारे दलित भाइयों के आय के साधन थे। गलती हम सो कॉल्ड उच्चे कास्ट वालों की भी है कि हमने इन्हें अस्पृश्य माना.. नतीजतन दिन-ब-दिन ये हमसे कटते ही जा रहे है। अगर अभी भी इसके ऊपर हमने नहीं सोचा तो सारे के सारे दैनिक जीवन वाले कार्य मियां लोगों के पास जायेगी और दलित भाई आरक्षण-आरक्षण खेलते रहेंगे वो भी और भी उग्र तरीके से। और मोमीन भाई लोग बोलेंगे "हम मुसलमान भले ही पंक्चर बनाते हैं.. जूता सिलते है.. चमड़ा बेचते हैं ..लेकिन आरक्षण की भीख नहीं मांगते हैं।" . गंगा महतो खोपोली की wall से -----------------------------------------------------------------------

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