रविवार, 24 जुलाई 2016

मंदिर क्यों पीछे रह जाते हैं ?

जब आपदाएं आती हैं तो सब लोग मदद के लिए आगे आते हैं | गुरूद्वारे से चंदा आ जाता है, चर्च फ़ौरन धर्म परिवर्तन के लिए दौड़ पड़ते हैं, आपदा ग्रस्त इलाकों में | ऐसे में मंदिर और मठ क्यों पीछे रह जाते हैं ? दरअसल इसके पीछे 1757 में बंगाल को जीतने वाले रोबर्ट क्लाइव का कारनामा है | लगभग इसी समय में उसने मैसूर पर भी कब्ज़ा जमा लिया था | सेर्फोजी द्वित्तीय के ज़माने में 1798 में जब थंजावुर को ईस्ट इंडिया ने अपने कब्जे में लिया तब से मंदिरों को भी ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने कब्जे में लेना शुरू कर दिया था | जब भारतीय रियासतों को अंग्रेजों ने अपने कब्ज़े में लेना शुरू किया तो अचानक उनका ध्यान गया की शिक्षा और संस्कृति के गढ़ तो ये मंदिर हैं | मंदिरों और मठों के पास ज़मीन भी काफी थी | देश पे कब्ज़ा ज़माने के साथ साथ आर्थिक फ़ायदे का ऐसा श्रोत वो कैसे जाने देते ? फ़ौरन ईस्ट इंडिया कंपनी के इसाई मिशनरियों ने इस मुद्दे पर ध्यान दिलाया | नतीज़न इसपर फौरन दो कानून बने | दक्षिण भारत और उत्तर भारत के लिए ये थोड़े से अलग थे | 1. Regulation XIX of Bengal Code, 1810 2. Regulation VII of Madras Code, 1817 “For the appropriation of the rents and produce of lands granted for the support of …. Hindu temples and colleges, and other purposes, for the maintenance and repair of bridges, sarais, kattras, and other public buildings; and for the custody and disposal of nazul property or escheats, in the Presidency of Fort Williams in Bengal and the Presidency of Fort Saint George, some duties were imposed on the Boards of Revenue….” ऐसा जिस कनून में लिखा था जाहिर है वो ये समझकर लिखा गया था जिस से हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं ज्यादा ना आहत हो जाएँ | धार्मिक भावनाओं को भड़काने का नतीजा अच्छा नहीं होगा उन्हें ये भी पता था, पूरेभारतीय समाज को ये एक हो जाने का मौका देने जैसा होता | इसके अलावा मिशनरियों कातरीका भी धीमा जहर देने का होता है | · ईस्ट इंडिया कंपनी को पता था की मंदिरों के पास कितनी संपत्ति है | उन्हें बचाना क्यों जरुरी है इसका भी उन्हें अंदाजा था | · इन निर्देशों /कानूनों में कहीं भी चर्चों का कोई जिक्र नहीं है | उनकी संपत्ति को छुआ तक नहीं गया है | 1857 के विद्रोह को कुचलने के बाद जब पूरे भारत पर विदेशियों का कब्ज़ा हो गया तब उन्होंने अपनी असली रंगत दिखानी शुरू की | 1863 में ब्रिटिश सरकार अलग अलग मंदिरों के लिए अलग अलग ट्रस्टी बनाने की प्रक्रिया शुरू करवा दी | भारतीय तब विरोध करने लायक स्थिति में नहीं थे | The Religious Endowments Act, 1863 · ट्रस्टी, मैनेजर और superintendent नियुक्त करने का अधिकार · संपत्ति revenue board के अधीन होगी, जो ट्रस्टी चलाएंगे · जिन मामलों में मंदिर या मठ की संपत्ति का सेक्युलर उदेश्यों के लिए इस्तेमाल करना हो Beginning of the Loot, 1927 सरकार को नजर आया की मठों और मंदिरों की संपत्ति को आसानी से अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है | 1863 के बाद के सालों में वो भली भांति मंदिरों की संपत्ति पर अपने “सेक्युलर” अधिकारी बिठा चुके थे ऐसे में वो जो चाहे वो कर सकते थे | सही मौका देखकर Madras Hindu Religious Endowments Act, 1926(Act II of 1927) का निम्न किया गया | इस एक्ट के तहत सरकार सिर्फ एक Notification देकर मंदिर और उसकी संपत्ति का अधिग्रहण कर सकती थी | इस एक्ट की एक और ख़ास बात ये है की पिछली बार जहाँ मस्जिद भी थोड़े बहुत सरकारी नियंत्रण में थे अब वो एक इसाई सरकार के नियंत्रण से बाहर थे | ये कानून सिर्फ हिन्दू धार्मिक संस्थानों के लिए है | इसाई और मुस्लिम संस्थान इस से सर्वथा मुक्त हैं | सिर्फ एक notification पूरे मंदिर की सारी चल अचल संपत्ति को ईसाईयों के कब्ज़े में डाल देता है | “सेक्युलर” भारतीय सरकारों के कारनामे हिन्दू धार्मिक संस्थानों पर पूरा कब्ज़ा, 1951 सन 1951 में मद्रास सरकार ने THE MADRAS HINDU RELIGIOUS AND CHARITABLE ENDOWMENTS ACT, 1951 बनाया | ये कानून बाकि सभी पिछले कानूनों के ऊपर था और हिन्दू मंदिरों पर सरकारी “सेक्युलर” नियंत्रण को पुख्ता करता था | कमिश्नर और उनके अधीन कर्मचारी कभी भी मंदिर पर पूरा कब्ज़ा जमा सकते थे | इस अनाचार का पुख्ता विरोध हुआ | 1954 में सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट के कई हिस्सों को असंविधानिक करार दिया | यहाँ तक की सुप्रीम कोर्ट ने एक हिस्से के बारे में कहा की वो ‘beyond the competence of Madras legislature’ है | 1956 में दक्षिण भारतीय राज्यों के पुनःनिर्धारण के बाद हर राज्य ने मंदिरों पर नियंत्रण के अपने अलग अलग कानून बनाये | हमने देखा की कैसे हिन्दुओं के मंदिरों को अपने कब्ज़े में लेने की साज़िश 1810 के ज़माने में अंग्रेजों ने रची | लेकिन ऐसा नहीं है की भारत के आजाद होने के बाद इस प्रक्रिया में कोई रोक लगी थी | पंद्रह सौ बरसों की गुलामी कर चुका हिन्दू राष्ट्र इतना कमज़ोर हो चुका था की वो अपने मंदिरों की रक्षा करने में भी समर्थ नहीं था | एक कारण ये भी था की इतने सालों में इतिहास को गायब कर दिया गया था | मंदिरों के पास संपत्ति ना होने के कारण वो किसी समाज सेवा में समर्थ ही नहीं थे | ऐसे मौके पर जब दुष्टों ने आरोप लगाया की इनका किसी की मदद करने का तो कोई इतिहास ही नहीं तो लोगों को लगा की हाँ पिछले सौ सालों में तो देखा ही नहीं कुछ करते ! यहाँ धूर्तता से ये नहीं बताया गया की उनकी सारी चल अचल संपत्ति ये कहकर कब्जे में ली गई है की धार्मिक के अलावा “सेक्युलर” समाजसेवी कार्यों के लिए उपयोग में लायी जाएगी | उस पैसे का जब सरकारें अपनी तरफ से इस्तेमाल करती थी तो ये कभी नहीं बताती की ये मदद का पैसा मंदिरों की ओर से मदद के लिए आया है | इस तरह मदद होती तो मंदिरों के पैसे से है मगर झूठे लोगों को ये कहने का मौका मिल जाता है की मंदिर तो कुछ करते ही नहीं | ऐसा नहीं है की इतिहासकारों, पत्रकारों, नेताओं को इनकी जानकारी नहीं थी | इनमे से कई ऐसे थे जिनके पास कानून की बड़ी बड़ी डिग्रियां भी थी | ये तथाकथित महान विश्वविद्यालयों से पढ़कर आये थे | आम भारतीय जनता की तरह इनमे से 50-60 फीसदी लोग अनपढ़ नहीं थे | ऐसे में ये सवाल पूछना भी बनता है की इन्होंने हमारे साथ ये छल किया क्यों ? आखिर इन्हें क्या फायदा हो रहा था की वो “मंदिर मदद नहीं करता” का झूठ बोलने लगे ? “अश्वथामा मर गया” का आधा सच बोलते समय युधिष्ठिर के पास महाभारत का युद्ध जीतने का लोभ था | जब इन इतिहासकारों ने, इन पत्रकारों ने ये आधा सच कहना शुरू किया तो इनके पास क्या लोभ था ? उत्तर भारतीय मंदिर महमूद गजनवी के आक्रमण के समय से ही लूटे जा चुके थे | दिल्ली के क़ुतुब मीनार पर स्पष्ट लिखा है की इसे कई हिन्दू मंदिरों को तोड़कर उनकी ईटों से एक विजयस्तंभ के रूप में बनाया गया | ऐसे में हमारे पास सिर्फ दक्षिण भारतीय मंदिर थे जहाँ धन था | जमीने उठा कर एक जगह से दूसरी जगह नहीं ले जाई जा सकती थी | लेकिन मंदिरों में बरसों के दान से इकठ्ठा हुआ स्वर्ण अभी भी दक्षिण भारत के मंदिरों में था | फ़ौरन इसे लूटने की योजना बनाई गई | गजनवी लौट आया, इस बार उसके साथ तलवार भाले लिए कोई फौज़ नहीं थी | इस बार उसके पास कानून की तोप थी | उसका विरोध करनेवालों ने गाय को देखकर हथियार नहीं रखे थे | पता नहीं किस लोभ, किस भय से उन्होंने अपनी कलम रख दी थी | लोकतंत्र के स्तंभ माने जाने वाली पत्रकारिता के बहादुरों ने देश को ये बताना जरुरी नहीं समझा की क्यों ऐसे काले कानूनों को फिर से जगह दी जा रही है | आज जब सूचना क्रांति के दौर में ये जानकारी जुटाना सुलभ है और सोशल मीडिया के संचार तंत्र हमें जानकारी आसानी से जुटा लेने की इजाजत देते हैं तो इन सभी तथाकथित लोकतंत्र के स्तंभों से पूछना हमारा धर्म है | अगर पत्रकारिता आपका धर्म था तो आपने जनता को सच क्यों नहीं बताया ? अगर कहीं आप नौकरी करते थे और विरोध करने से आपको नौकरी /आर्थिक क्षति का भय था तो नैतिकता की दुहाई किस मूंह से देते हैं ? जिन्हें आप भ्रष्ट कहते हैं, सत्ता लोलुप, घूस लेने वाला, बेईमान कहते हैं उसी की तरह पैसे के लालच में सच से मूंह आपने भी तो मोड़ रखा था न ? शर्मा क्यों रहे हैं बताइए न ? आइये फ़िलहाल आजादी के बाद बने कानूनों पर एक नजर डालें | धन की चर्चा होते ही सबसे पहले दक्षिण के मंदिरों की चर्चा होती है | कहा जाता है की इनके पास काफी सोना चढ़ावे में आता है | उनकी संपत्ति कैसे कानूनों से कब्जे में लेकर उस धन का सरकार इस्तेमाल कर रही है इसे देखने के लिए हम तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों के कानून पर एक नजर डालते हैं | यहाँ बने 1951 के कानून को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक बता दिया था | 1954 में तीन चार साल मुक़दमा चलने के बाद ये कानून ख़ारिज हुआ और दूसरा कानून बनाने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने जारी किया | The Tamil Nadu Hindu Religious and Charitable Endowments Act 1959 & Karnataka Religious Institutions and Charitable Institutions Act 1997 तमिलनाडु की सरकार ने Tamil Nadu Hindu Religious And Charitable Endowments Act, 1959 बनाया था | उस समय वहां के. कामराज की सरकार थी | इन महान “सेकुलरों” ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा ख़ारिज किये गए हर हिस्से को दोबारा से इस नए कानून में डाल दिया | 1954 में जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने हटा दिया था उन्ही सेक्शन 63-69 को इसनए एक्ट में सेक्शन 71-76 के रूप में दोबारा घुसेड़ दिया गया था | मैसूर राज्य और बाद में कर्नाटक ने 1951 के Madras act (और इसके सम्बंधित एक्ट्स) को 1997 तक जारी रखा | 1997 में The Karnataka Hindu Religious Institutions and Charitable Endowments Act, 1997 आया | ये एक्ट संविधान का सीधा उल्लंघन था | कर्नाटक हाईकोर्ट ने पाया की ये भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16, 25, और 26 का सीधा उल्लंघन है| ऐसा पाने पर 8 सितम्बर, 2006 को कर्नाटक हाई कोर्ट ने इस एक्ट को निरस्त कर दिया | इसके बाद कर्नाटक सरकार The Karnataka Act 27 लेकर 2011 में आई जिसमे संविधान का उल्लंघन अपेक्षाकृत कम होता है |जैसे की इस एक्ट में ये प्रावधान है की राज्य और जिला स्तर पर हिन्दू पुजारियों और वेद के जानकारों की नियुक्ति हो सकती है | मंदिरों के संभाल के लिए कर्म कांडों के जानकार लोगों की नियुक्ति इस एक्ट के कारण संभव है | इधर हाल फ़िलहाल के सालों में अजीबो गरीब तरीकों से मंदिरों को ‘notification’ के जरिये कब्ज़े में लेने की घटनाएँ बंद नहीं हुई हैं | 1971 में श्री कपलीश्वर मंदिर की संपत्ति को एक ‘ex-parte’ आदेश के जरिये डिप्टी कमिश्नर ने अपने कब्ज़े में ले लिया था | ऐसे ही एक ‘ex-parte’ आदेश से 18 जुलाई, 1964 में श्रीसुगवानेश्वर मंदिर को सालेम में कब्ज़े में लिया गया था | दक्षिण भारत के लगभग सभी बड़े मंदिरों को ऐसे ही ‘ex parte’ आदेश के जरिये किसी न किसी डिप्टी कमिश्नर ने अपने कब्ज़े में लिया हुआ है | इनके लिए 1959 के एक्ट की धारा 64(5)A का इस्तेमालकिया जाता है | सन 1951 के एक्टकी धारा 63 और 1959 की धारा 71 की समानताएं नीचे कॉपी पेस्ट हैं | सीधा अंग्रेजी में ही डाल दिया है ताकि ये स्पष्ट दिख सके की एक असंवैधानिक घोषित किये जा चुके काले कानून को कैसे हमारी “सेक्युलर” सरकारें दोबारा इस्तेमाल कर रही हैं | इनमे क्या क्या किया जा सकता है उसपर भी आपका ध्यान जायेगा | Sections 63 in the ’51 act: 63. (1) Issue of notice to show cause why institution should not be notified.-Notwithstanding that a religious institution is governed by a scheme settled or deemed to have been settled under this Act, where the Commissioner has reason to believe that such institution is being mismanaged and is satisfied that in the interests of its administration, it is necessary to take proceedings under this Chapter, the Commissioner may, by notice published in the prescribed manner, call upon the trustee and all other persons having interest to show cause why such institution should not be notified to be subject to the provisions of this Chapter. (2) Such notice shall state the reasons for the action proposed, and specify a reasonable time, not being less than one month from the date of the issue of the notice, for showing such cause. (3) The trustee or any person having interest may thereupon prefer any objection he may wish to make to the issue of a notification as proposed. (4) Such objection shall be in writing and shall reach the commissioner before the expiry of the time specified in the notice aforesaid or within such further time as may be granted by the Commissioner. And here is the reading of Section 71 of the ’59 Act: 71. (1) Not withstanding that a religious institution is governed by a scheme settled or deemed to have been settled under this Act, where the Commissioner has reason to believe that such institution is being mismanaged and is satisfied that in the interests of its, administration, it is necessary to take proceedings under this Chapter, the Commissioner may, by notice published in the prescribed manner, call upon the trustee and all other persons having interest to show cause why such institution should not be notified to be subject to the provisions of this Chapter. (2) Such notice shall state the reasons for the action proposed, and specify a reasonable time, not being less than one month from the date of the issue of the notice for showing such cause. (3) The trustee or any person having interest may thereupon prefer any objection he may wish to make to the issue of a notification as proposed. (4) Such objection shall be in writing and shall reach the Commissioner before the expiry of the time specified in the notice aforesaid or within such further time as may be granted by the Commissioner. जी नहीं ! एक ही कानून को दो बार कॉपी पेस्ट करने की भूल नहीं की है जनाब | एक के ख़ारिज होने के बाद ये दूसरा ’71 का कानून आया है | इस तरह एक ही असंवैधानिक कानून को दोबारा नए नाम से परोस कर अभी भी मंदिरों में दान किये गए हिन्दुओं के पैसे की लूट जारी है | Source:baklol.com

गुरुवार, 21 जुलाई 2016

दलित समाज अब मृत पशु नहीं उठाएगा।

दलित समाज अब मृत पशु नहीं उठाएगा। यह बात अब तक एक दर्जन सवर्ण और ओबीसी मित्रो के वॉल पर देख चुका हूंं। यह जो लोग लिख रहे हैं, वास्तव में उनकी मुराद क्या है? क्या वे दलितों का हक मार कर अपने परिवार के साथ चमड़े के व्यावसाय में उतरना चाहते हैं। वैसे भी एक ब्राम्हण शौचालय के कारोबार पर पहले से ही 'ग्लोबली' कब्जा किए बैठा है। कहीं चमड़े का कारोबार कब्जा करने की यह कोई ब्राम्हणवादी साजिश तो नहीं है।. . अब मैं अपने तरफ की बात बताता हूँ .. आज से यही कोई 6-7 साल पहले बदलाव आना शुरू हुआ.. इससे पहले जब भी हमारे यहाँ कोई मवेशी मरता था तो इसकी सुचना रविदास(महार) लोगों तक पहुँचाई जाती थी.. वो लोग जैसा मवेशी का साइज़ उसी हिसाब से आते थे.. वैसे नॉर्मली 4 जन तो आते ही थे .. कुछ पैसे लेते थे.. दो बोतल महुआ का दाम लेते थे और एक-एक पैला चावल। ... कन्धे में उठा के गाँव से बाहर ले जा उसका चीर-फाड़ करते थे। .. चमड़ा उतार के साथ में ले जाते थे। लेकिन 6-7 साल पहले परिवर्तन आना शुरू हुआ .. और इसकी शुरुआत हुई भेण्डरा पंचायत से बाबूलाल रविदास के मुखिया बनने के बाद।.. ये महाशय महाराष्ट्र में बहुत दिन रहे थे.. तो प्रभाव था इनके ऊपर जे भीम वालों का। .. मुखिया बनते ही ऐलान करवा दिया कि कोई रविदास भाई किसी के यहाँ 'मोरी' (जानवरों के लाश) उठाने नहीं जाएगा.. आखिर तुमलोग ऐसी घिसी-पिटी जिंदगी कब तक जियोगे ? कब तक ऐसे ही लोगों के घरों में जा जा के मोरी उठाते रहोगे ? .. उनके जानवर है , वो खुद देखे.. हमने उठाने का ठेका ले रखा है क्या ? किसी को नहीं जाना है किसी के घर मोरी उठाने। इसका असर भी हुआ.. कोई नहीं आने लगा मोरी उठाने । मेरे घर में गाय मरी .. हमने हाल भिजवाया रविदास के घर, कोई नहीं आया.. बाद में अपने छोटे भाई को उसके घर भेजा.. तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया कि 'अब हमलोगों ने मोरी उठाना बन्द कर दिया है.. हम नहीं जा सकते!' .. अब घर की गाय मरी है.. ऐसे ही फेंक नहीं सकते .. तो हमलोग ही सभी भाई मोरी उठाये और गाँव के बाहर ले जा के गड्ढा खोद के उसमें दफना दिए.. और लोग भी वैसे ही करने लगे। कुछ दिन बाद एक मियां जी आये .. बोले कि 'आपलोग ऐसे काहे दफना देते हैं मोरी को.. हमको दे दीजिये.. हम इसका यूज़ करेंगे .. आखिर इससे पहले आपलोग रविदास लोगों को तो देते ही थे.. वही हमें दे दीजिये.. हम तो कोनो पैसा-वैसा और चावल भी नहीं लेंगे.. बस जब भी कोई मवेशी मरे हमको सिर्फ एक बार फोन कर दीजियेगा.. हम आ जायेंगे।' .. लोगों को मियां जी की बात जँची.. जब भी कोई मवेशी मरता.. उसको फोन कर देते .. वो उठा के ले जाता ! पहले तो वो रिक्शा में उठा के ले जाता था.. लेकिन अब उसके ऑटो-रिक्शा है.. दो हेल्पर भी है.. फोन करते ही दनदनाते हुए हाज़िर हो जाते है। . तो क्या है कि मियां जी इसे 'बिजनेस' का शक्ल दिया.. और कामयाब भी रहे.. जो चीज रविदास भाइयों को अस्पृश्य बनाती थी.. जिसके लिए वो खुद भी हीन-भाव से ग्रसित होते थे, और इसको हटाने के लिए अपने परम्परागत कार्य को छोड़ा उसको एक मियां जी हाथ लपक के अवसर के तौर पे अपनाया .. और आज वो सक्सेस है। वैसे ही और भी कितने ही ऐसे कार्य थे जिसके चलते इन सब का पेट चलता था.. रोजगार के कारण थे.. उनको हीन-कार्य.. हीन-कार्य बोल के उनमें हीनता भरा गया.. और ज़बर भरा गया.. इतना भरा गया कि उसने अपना काम करना ही छोड़ दिया.. फिर उसके छोड़े हुए कार्य को मियां लोगों ने हाथों हाथ लपका! और उस क्षेत्र में कामयाब भी रहे। ..आज जूता-चप्पल, पंक्चर से लेकर चमड़े तक में उन सब की धाक है.. जो पहले हमारे दलित भाइयों के आय के साधन थे। गलती हम सो कॉल्ड उच्चे कास्ट वालों की भी है कि हमने इन्हें अस्पृश्य माना.. नतीजतन दिन-ब-दिन ये हमसे कटते ही जा रहे है। अगर अभी भी इसके ऊपर हमने नहीं सोचा तो सारे के सारे दैनिक जीवन वाले कार्य मियां लोगों के पास जायेगी और दलित भाई आरक्षण-आरक्षण खेलते रहेंगे वो भी और भी उग्र तरीके से। और मोमीन भाई लोग बोलेंगे "हम मुसलमान भले ही पंक्चर बनाते हैं.. जूता सिलते है.. चमड़ा बेचते हैं ..लेकिन आरक्षण की भीख नहीं मांगते हैं।" . गंगा महतो खोपोली की wall से -----------------------------------------------------------------------

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