शनिवार, 30 अप्रैल 2016

लो दिन बीता लो रात गयी -- हरिवंशराय बच्चन

सूरज ढल कर पच्छिम पंहुचा,
डूबा, संध्या आई, छाई,
सौ संध्या सी वह संध्या थी,
क्यों उठते-उठते सोचा था
दिन में होगी कुछ बात नई
लो दिन बीता, लो रात गई

धीमे-धीमे तारे निकले,
धीरे-धीरे नभ में फ़ैले,
सौ रजनी सी वह रजनी थी,
क्यों संध्या को यह सोचा था,
निशि में होगी कुछ बात नई,
लो दिन बीता, लो रात गई

चिडियाँ चहकी, कलियाँ महकी,
पूरब से फ़िर सूरज निकला,
जैसे होती थी, सुबह हुई,
क्यों सोते-सोते सोचा था,
होगी प्रात: कुछ बात नई,
लो दिन बीता, लो रात गई

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

वामपंथी विचारधारा -- एक बौद्धिक आतंकवाद





वामपंथी विचारधारा एक बौद्धिक आतंकवाद है और इनका अस्तित्व तभी तक है जब तक ये व्यवस्था में नीति निर्धारण में है ।  देश में लगातार अपना जनाधार खोने के कारन वामपंथी बौखला गया है जिसका परिणाम असहिष्णुता , अवार्ड वापसी, अफजल हम शर्मिंदा है तेरे कातिल जिन्दा है के रूप में देखने को मिला । JNU  यूनिवर्सिटी इनका गढ़ है और जब इनके गढ़ में राष्ट्रवादी घुस आये है तो ये बौखलाए बौखलाए बौखलाए घूम रहे है और हर दिन एक नया प्रोपोगंडा रच के विषय से ध्यान हटाने की पुरजोर कोशिश की जा रही है । हालाँकि ऐसा नहीं है की JNU  में ऐसी घटनाएं पहली बार हुयी हो इससे पहले भी कई बार इस प्रकार की घटनाएं हो चुकी है। 
जैसे की कैंपस में भारत - पकिस्तान मुशायरे में भारत विरोधी बातों का विरोध करने पर वामपंथियों द्वारा सैनिकों की पिटाई कर दी जाती है। दंतेवाड़ा में जब सैनिक शहीद होते है तो ये जश्न मानते है । महिसासुर दिवस मानते है और माँ दुर्गा को सेक्स वर्कर तक घोसित कर देते है । यह एक तरह का बौद्धिक आतंकवाद है
। इस प्रकार लगातार ये देश विरोधी और धार्मिक भावनाओ को भड़काने वाली गतिविधियाँ करते रहे थे पर इस बार देश ने इन्हें रंगे हांथो पकड़ लिया । आजतक वामपंथियों ने इसी के कारण आरएसएस को हासिये पर रख रखा था पर अब ऐसा नहीं है लेकिन अब ऐसा नहीं है , अब आमजनों में संघ के विचारों को लोग स्वीकार्य कर रहे है और इसी वजह से वामपंथी बौखला रहे है छटपटा रहे है । जब से देश आजाद हुआ है तब से अब तक वामपंथियों का ही शिक्षण और बौद्धिक संस्थानों पर कब्ज़ा था पर अब संघ की स्वीकार्यता बढ़ने के कारन इनका सिंहासन इन्हें  डोलता हुआ दिख रहा है इसलिए ये आरोप लगा रहे है की संघ अपनी विचारधारा थोप रहा है पर सभी जानते है ऐसा कुछ भी नहीं है । संघ हमेशा से अपनी विचारधरा पर अडिग रहा है और बौद्धिक विकास को समग्रता से विकसित करना  चाहता हैं। हम इनके बौद्धिक आतंकवाद को  इनके हर कुतर्क का मुंहतोड़ जवाब देकर कर सकते है । 


हम इस बौद्धिक आतंकवाद  से लेकर रहेंगे --- आजादी 

क्या परिच्छा दे "कटहल"

जटाशंकर ,अब प्राइमरी स्कूल मे अध्यापक है , बचपन ने बहुत ही शरारती थे पढ़ाइ लिखाइ मे मन नही लगता था । इनकि शरारतो से लोग इतना परेशान थे कि लोगों ने इनका नाम पखंडु रख दिया था। एक किस्सा तो ये खुद ही बताते है।
एक बार उनको कोइ इक्ज़ाम देने जाना था।  इक्जा़म का सेंटर घर से कोइ 10-15 किलोमीटर दूरऔर सुबह के पाली मे यानी 9 बजे से था। पखंडु ने सोचा क्यों न कुछ कमाइ कर ली जाये , परिच्छा तो होती रहती है हो ही जायेगी पर किया क्या जाये, बहुत सोचने बिचारने पर एक आीडीया आया लेकिन उस पर अमल करना खतरनाक था ।पकड़े जाने पर पिटाइ हो सकती थी पर पखंडु पिटाइ से कब डरने वाले थे बस चल दिये अपने मिशन पर । रात को ही गांव मे चोरी से लोगो के कटहल चुराये और सुबह ही सुबह सााइकिल ली बोरे मे कटहल भरा और चल दिये कि सुबह सुबह मंडी मे बेच देंगे पर अभी परेशानी खत्म नही हुयी थी आधे रास्ते ही पहुंचे थे कि साइकिल पंक्चर हो गयी ।अब इतनी सुबह पंक्चर बनाने वाला मुश्किल था पर कुछ पूछ - ताछ करने पर पता चला कि पास मे हि एक आदमी है जो मदद कर सकता है यानी पंक्चर बना सकता है पर उस आदमी ने इनसे पंक्चर ठीक करने के बदले जब पैसे मांगे तो इनको याद आया कि चोरी करने के चक्कर मे और घर से जल्दि निकलने के चक्कर मे पैसे तो घर पर छोड़ आये है , पंकचर बनाने वाले ने भी भॉप लिया कि कुछ गड़बड़ है । उसने बोला पैसे दो नहीं तो ये बोरा यहीं छोड़ जाओ। बेचारे पखंडु के पास कोइ चारा न था बोरी वही छोड़ दी और वापस घर कि तरफ चल दिये क्योकि अब इक्जाम देने का कोइ मतलब नहीं रहा । गांव पर सब लोग परेशान थे कि रात को पता नहीं कौन कटहल चुरा ले गया इनको आते देख किसी ने इनसे पूछ लिया कि इक्जाम देने नहीं गये क्या , इनके मुह से निकला - अब का परिच्छा देने जाये "कटहल" । लोगो को समझते देर नही लगी क् कटहल इन्होने ही चुराया है बस लोगो ने जम कर कूट दिया । तब से आज तक कसम खाते है और सपने भी चोरी से बचते है और साथ मे ये भी कहते हैं कि चोरी का धन मोरी मे जाता है का इससे अच्छा उदाहरण नही हो सकता , बाकी जो है सो हइयै है । 

बुधवार, 27 अप्रैल 2016

वामपंथ और नारी सशक्तिकरण



वामपंथ भारत और भारतीय मूल्यों के लिए सबसे बड़ा खतरा है|ये झूठ की बुनियाद पर विचारों का वितंडावाद खड़ा करते हैं|इन्होंने चतुराई से तमाम शैक्षिक-साहित्यिक-संस्थानिक इकाइयों पर कब्ज़ा जमा लिया और वेद-उपनिषद-इतिहास-दर्शन आदि की भी मनमानी व्याख्याएँ करने लगे|अनर्गल प्रलाप का विश्वव्यापी ठेका ले रखा है इन्होंने!ये हर चीज की व्याख्या वर्ग-संघर्ष की अपनी संकीर्ण अवधारणा के आधार पर करते हैं और भारत में तो इनकी वर्गीय चेतना भी जातियों में विभक्त है| ये कह रहे हैं कि सिंदूर, पायल,मंगलसूत्र,बिंदी आदि गुलामी के प्रतीक हैं और आर्य स्त्रियाँ इन्हें इसलिए पहनती रहीं कि लंबे समय तक इन्हें साँकल में बाँधकर उसी तरह रखा गया जिस तरह पशुओं को रखा जाता है|ज़रा सोचिए कितना लचर तर्क है,तो क्या कल को ये यह भी कहेंगे कि वस्त्र आदि धारण करना भी गुलामी का प्रतीक है और इसे भी उतारकर फेंक देना चाहिए|इन जाहिलों को कौन समझाए कि मानव-सभ्यता की विकास-यात्रा में सौंदर्य व मूल्य-बोध स्वाभाविक रूप से विकसित होते गए|स्त्रियों का सजना-संवरना उनकी स्वाभाविक रूचि और स्वाधिकारों से जुड़ा मसला है न कि थोपा गया व्यवहार|देश के बहुत से हिस्सों में पुरुष भी कर्णछेदन कराते हैं,वे भी अंगूठी,माला कड़ा आदि पहनते हैं तो क्या उन्हें अनार्य स्त्रियों ने गुलाम बनाया था?जब आभूषण चलन में नहीं आए थे तब भी वनफूलों से जूड़े आदि बनाने का चलन था|सभ्यता के विकास के साथ-साथ चाहे स्त्री हो या पुरुष उनमें स्वयं को सुंदर तरीके से प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति पनपी और इसमें कुछ भी अस्वाभविक नहीं है| आर्य-अनार्य का सिद्धांत ही इन्होंने इसलिए गढ़ा है ताकि आसानी से लोगों को लड़ाया जा सके और राष्ट्रीय सोच को कुंद किया जा सके|क्या यह पुरुषवादी मानसिकता नहीं है कि स्त्रियों से यह कहा जाय कि तुम स्वयं को बेहतर तरीके से प्रस्तुत मत करो,कि तुम सजो-संवरो नहीं,कि तुम दीन-हीन-लाचार अवस्था में जीती रहो! इतना ही नहीं ये यौनिक स्वतंत्रता की बात करते हैं,इस स्वतंत्रता में भी गुलामी की वृत्ति छुपी है|एक पुरुष का परित्याग कर किसी अन्य के वरन् में आज़ादी कहाँ हुई?स्त्रियों की आज़ादी के नाम पर ये वामपंथी किसी भी प्रकार के बेसिर-पैर की बात करते हैं और सोचते हैं कि वे जो सोच रहे हैं वह बहुत क्रांतिकारी,बहुत ही क्रांतिकारी है|इन सारी बहसों में एक बार स्त्रियों की राय लेकर भी तो देख लीजिए कॉमरेड,आपको दूध का दूध और पानी का पानी नज़र आ जाएगा!

तुम तुंग - हिमालय - शृंग और मैं चंचल-गति सुर-सरिता। --- सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

 

 

तुम तुंग - हिमालय - शृंग
और मैं चंचल-गति सुर-सरिता।
तुम विमल हृदय उच्छवास
और मैं कांत-कामिनी-कविता।

तुम प्रेम और मैं शांति,
तुम सुरा - पान - घन अंधकार,
मैं हूँ मतवाली भ्रांति।
तुम दिनकर के खर किरण-जाल,
मैं सरसिज की मुस्कान,
तुम वर्षों के बीते वियोग,
मैं हूँ पिछली पहचान।

तुम योग और मैं सिद्धि,
तुम हो रागानुग के निश्छल तप,
मैं शुचिता सरल समृद्धि।
तुम मृदु मानस के भाव
और मैं मनोरंजिनी भाषा,
तुम नन्दन - वन - घन विटप
और मैं सुख -शीतल-तल शाखा।

तुम प्राण और मैं काया,
तुम शुद्ध सच्चिदानंद ब्रह्म
मैं मनोमोहिनी माया।
तुम प्रेममयी के कंठहार,
मैं वेणी काल-नागिनी,
तुम कर-पल्लव-झंकृत सितार,
मैं व्याकुल विरह - रागिनी।

तुम पथ हो, मैं हूँ रेणु,
तुम हो राधा के मनमोहन,
मैं उन अधरों की वेणु।
तुम पथिक दूर के श्रांत
और मैं बाट - जोहती आशा,
तुम भवसागर दुस्तर
पार जाने की मैं अभिलाषा।

तुम नभ हो, मैं नीलिमा,
तुम शरत - काल के बाल-इन्दु
मैं हूँ निशीथ - मधुरिमा।
तुम गंध-कुसुम-कोमल पराग,
मैं मृदुगति मलय-समीर,
तुम स्वेच्छाचारी मुक्त पुरुष,
मैं प्रकृति, प्रेम - जंजीर।

तुम शिव हो, मैं हूँ शक्ति,
तुम रघुकुल - गौरव रामचन्द्र,
मैं सीता अचला भक्ति।
तुम आशा के मधुमास,
और मैं पिक-कल-कूजन तान,
तुम मदन - पंच - शर - हस्त
और मैं हूँ मुग्धा अनजान!

तुम अम्बर, मैं दिग्वसना,
तुम चित्रकार, घन-पटल-श्याम,
मैं तड़ित् तूलिका रचना।
तुम रण-ताण्डव-उन्माद नृत्य
मैं मुखर मधुर नूपुर-ध्वनि,
तुम नाद - वेद ओंकार - सार,
मैं कवि - श्रृंगार शिरोमणि।

तुम यश हो, मैं हूँ प्राप्ति,
तुम कुन्द - इन्दु - अरविन्द-शुभ्र
तो मैं हूँ निर्मल व्याप्ति।

आरक्षण और मनुवाद



जब आरक्षण का लाभ ले रहे धनी लोगों से आरक्षण छोड़ने की बात की जाती है तो वो एक ही बात कहते हैं आप मनुवाद छोड़ दो हम आरक्षण छोड़ देंगे। आज कितने घरों में मनुस्मृति देखने को मिलती है? शायद लाखों में एक घर ऐसा होगा जहां मनुस्मृति देखने को मिले। इसका कारण ये है की हिंदुओं ने स्वयं इसे अव्यवहारिक समझकर इसका परित्याग कर दिया है और बाजार में जो उपलब्ध भी है वह विकृत रूप में हैं यानि हिन्दू विरोधियों ने उसमें छेड़छाड़ कर सवर्णों को बुरा बताने का हर सम्भव प्रयास किया है। फिर भी मनुवाद का ठप्पा फेविकोल की तरह सवर्ण हिंदुओं के साथ चिपका दिया गया है..........

मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

वामपंथ कि चाल

आजकल एक नया ट्रेंड चला है, या यूं कहिए वामी दल चला रहा है ।

अगर उनकी बात पे गौर करें तो ये लगेगा कि जो कुछ वे कर रहे हैं वो बिलकुल नॉर्मल बातें हैं, जरा सा असहमति का प्रदर्शन है जो कि हर लोकतन्त्र में नागरिक का हक़ है और एक विद्यालय के कैम्पस में कुछ पाँच छह सौ लोगों ने उसमें भाग लिया तो इसमें विचलित होने की कोई बात ही नहीं है ।

ऊपर से चिढ़ाते हैं - क्या सरकार इतनी कमजोर है कि इतनी छोटी घटना से डर जाये?

इस सब का मतलब एक ही है, गलती पकड़ी गई है तो पीछा छुड़वाना है ।

अब इसके बाद वे धीरे से एक और बात चला देते हैं । क्या है वो बात?

ये कहते हैं कि आम भारतीय इनके विरोध में हैं ही नहीं। यह तो बस कुछ गिने चुने हिन्दुत्ववादी हैं जिन्हें ये संघी कह कर पुकारते हैं ।इन वामियों के नजर में संघी होने से बुरा कुछ भी नहीं ।

एक बार कुतर्क इस मेढ़े पर टिका दिया फिर वहीं से ये शुरू हो जाते हैं । पूरी कवायद ये की जाती है कि संघी बुद्धि के पैदल होते हैं क्यूंकि अभी भी नब्बे साल पुरानी नेकर में घूमते हैं। संघी कूल डूड नहीं है, कुल मिलाकर बात को भटकाने की पुरजोर कोशिश करते हैं ।

फिर शुरू हो जाएँगे कि इन्हें तो तर्क देना आता ही नहीं । हम से लड़ने आएंगे तो खदेड़ दिये जाएँगे । हमारे जैसा इनका कोई अभ्यास है ही नहीं । दो मिनट में चर्चा में देश के सामने धज्जियां उड़ा देंगे । पहले हमारे बराबरी में आओ फिर आगे की बात ।

TRAP यही होता है, और उसे ही तोड़ना है । एक ही मार्के के सवाल से यह तिलिस्म टूटेगा ।

इनके जो नित्यस्मरणीय भगवान हैं - लेनिन, चे, कास्ट्रो,माओ, हो चि मिन्ह - इनहोने किससे तर्क किए थे? कितने बुद्धूजीवी थे उनके साथ ? या फिर, सत्ता में आने के बाद, कितने लोकतान्त्रिक रहे ये कम्यूनिज़्म के भगवान ?

हर किसी ने लोकभावना को जगाया है । एक लहर की ताकद बनाई है और सत्ता हासिल की है । सत्ता में आने के बाद वही किया जो पिछले राज्यकर्ता करते आए, बस क़िबला बदल दिया इतनाही फर्क । पहले के राजा रानी अगर पुजारी वर्ग के सहारे खुद को ईश्वरीय अंश वगैरा बताते थे तो यहाँ इनहोने बिकाऊ विद्वानों को प्रश्रय दे कर नए लेबल बनवा लिए । चूंकि कृपा प्रार्थना के लिए कोई भगवान नहीं था, इनहोने शत्रु गढ़ लिए । प्रजा को जो मुश्किलें इनके कारण भुगतनी पड़ती उसके लिए कोई शत्रु जिम्मेदार ठहराया जाता । सवाल उठाना --- द्रोह ! देश द्रोह, राज द्रोह जो मन में आए, पूछनेवाला कौन ?  जो सत्ता के खिलाफ था वो गणशत्रु घोषित हो जाता । अपनी ताकत का बेशर्म उपयोग कर के अन्य मुल्कों में भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन करने में कम्युनिस्ट कभी न हिचकिचाये । एक किस्सा बताता हूँ ।

खोमेनी ने बिना पढे ही सलमान रश्दी की Satanic Verses को ban करवाया था आप तो जानते होंगे । वैसे इस्लाम तो गैर इस्लामियों की अभिव्यक्ति की आजादी वगैरा मानता नहीं कभी । जिंदा रहने देता है वही मेहरबानी जताता है । लेकिन वामियों ने Animal Farm को भी ban करवा रखा था यह भी आप को पता होना चाहिए । आप के कौन से मुंह से अभिव्यक्ति की आजादी के नारे लगा रहे हो कॉमरेड, असहिष्णुता की बू आ रही है ।

भारत में इनहोने हिंदुओं की नस जान ली । शान्तिप्रिय लोग हैं, सहनशील भी हैं । झट से झूठ पर भी विश्वास रख लेते हैं और पकड़े जानेपर भी माफ कर देते हैं । कम से कम जान से तो नहीं मारा करते । पापी पेट के लिए होता है यह सब कह कर आगे निकल जाते हैं । कुछ लोग छोड़े तो ज़्यादातर लोग झगड़े में नहीं पड़ना चाहते । ऊपर से त्राताहीन स्थिति । न नेता न जात, कोई न देगी साथ । इसलिए सरकारी तंत्र से बच कर रहना स्वाभाविक सा हो गया ।

Macaulay ने यह बात ठसा कर भर दी थी कि भारत का ज्ञान तुच्छ है । उसकी Note मिल जाएगी नेट पर, पढ़ लीजिये । बड़ी तुच्छता से लिखता है कि समूचे भारत का ज्ञान जितना है वो यूरोप की किसी सामान्य लाइब्ररी के एक शेल्फ के बराबर है । यही तुच्छता भी हिन्दुओने कुबूल की और जो अङ्ग्रेज़ी जाने वो अधिक शिक्षित यह समीकरण सा बन गया । अब जो बोले अङ्ग्रेज़ी वो वाकई ज्ञानी भी है या बस करे हैं लफ्फाजी ?

इनकी देशभक्ति (?) को परखने का हक हमें हो न हो लेकिन दूसरों को विद्वान या मूर्ख ठहराने का टेंडर इनहोने अपने ही नाम निकलवा लिया है । विद्वान तो अपने खेमे से बाहर किसी को भी मानते नहीं - बशर्ते USA में कहीं कोई वृत्ति मिलती हो - लेकिन बाकियों को सारे लाल  कौवों का झुंड इकट्ठा हो कर मूर्ख सर्टिफाय कर देता है ।

कहने का तात्पर्य यह है कि एक सोची समझी नीति के तहत इनका काम चल रहा है भारत के युवा वर्ग में भारत के प्रति घृणा पैदा करने का । काफी सफल भी रहे हैं क्यूंकी आज हमें अजीब नहीं लगता अगर कोई कहता है कि "इंडिया में रखा ही क्या है"। इंडिया, भारत या हिंदुस्तान नहीं यह बात नोट की जाये । फिर भी, यह भूमी और संस्कृति से नाभिनाल का संबंध ही कहना चाहिये कि अभी भी कोई भारत का नुकसान करने की बात करता है तो NRI के भी खून में उबाल आता है ।

इसी नीति के तहत जारी है हिंदुओं का बधियाकरण । अंग्रेज़ ने हिन्दू को नि:शस्त्र किया, काँग्रेस ने निस्तेज ! वो भेड़ों की नस्ल बना दी जिन्हें सींग भी नहीं आते । और इस निस्तेजीकरण में सब से अग्रणी कौन थे तो वामी, क्योंकि शिक्षा का महत्व वे जानते हैं । The Left has played a stellar role in ensuring India has been left behind by a large gap - both physical and mental - behind the erstwhile masters and their colonial cousins who have taken on the White Man's Burden for the profits it yields.

शिक्षा को प्रगति का मार्ग बनाया लेकिन मार्ग का टोल टैक्स काफी है, सो अपने आप इसी मार्ग को अपनाने वालों की संतति की संख्या कम हो गई । संतान बहुत बड़ी लागत हो गई जिसको हर झगड़े से सुरक्षित रखना माँ बाप के लिए सब से अहम मुद्दा बन गया । इसमें संतान नर न रहकर nerd बन गई लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया क्योंकि यही ठसाया जा रहा था कि आप सही जा रहे हैं ।

इस पीढ़ी को यह बताया जा रहा है कि संघर्ष केवल वैचारिक होते हैं और विचारों से ही  विचारों का मुक़ाबला किया जा सकता है, और आप अगर भारतीय राष्ट्रभक्त हैं तो आप वामी नहीं हैं इसलिए औटोमैटिकली आप क्वालिफ़ाई भी नहीं करते । पहले कुछ पढ़िये, हमारे बराबरी में आइये, फिर सोचते हैं ।

एक मिनट ! विचारों से ही  विचारों का मुक़ाबला किया जा सकता है यह बात एक हद तक ही सही होती है । अपना विचार सबका विचार बनाकर सत्तारूढ़ पक्ष का विकल्प बना जाता है, लेकिन मुक़ाबला दोनों विरोधी विचारों से प्रेरित फौजों का होता है, दो लफ्फाजी करनेवालों का नहीं । भारत लोकतन्त्र है इसलिए डिबेट सत्तान्तर में सहायक होती है । और इसीलिए ये वामी आप का केवल उपहास उड़ाते रहते हैं कि आप हमसे चर्चा के भी लायक नहीं । लेकिन केवल चर्चा ही सब से बड़ी बात नहीं होती ।

इसीलिए मैंने शुरुवात में इन वामियों के प्रात:स्मरणीय विभूतियों की बात की थी । आज ये वामी वही बात देख रहे हैं कि 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' के नारों से देश सुलग उठा है । और ये नारों के समर्थन में ये खुलकर बाहर आए तो जनमत यह भी बन गया कि देशद्रोही का साथी भी कम देशद्रोही नहीं होता । किसी को यह बनाना जरूरी नहीं पड़ा, और मीडिया इनके ताबे में हो कर भी यह इस जनमत को बदल न सके । जितना भी इनहोने देशद्रोह या देशद्रोहियों का समर्थन किया, इनके भी चरित्र खुलने शुरू हुए ।

आज इन्हें डर एक ही बात का है कि वक़्त के पहले ही प्लान फूटा । वक़्त ? हाँ, वो घड़ी जब भारत के पास इनके हमले से खुद को संभालने का वक़्त न बचा रहे । क्या आप तैयार भी हैं ऐसे वक़्त के लिए ? खैर, बात इनके डर की थी ।  इन्हें डर है पीटनेका  और इसीलिए वैचारिक युद्ध की बातों में उलझाए रखना चाहते हैं ताकि मूल  बात साइड लाइन हो जाये । यह गलती मत करिएगा और इन्हें भी याद कराइएगा कि लेनिन, माओ, चे, कास्ट्रो की क्रांतिया हिंसक ही थी । याद दिलाने का तरीका आप पर निर्भर होगा ।

और हाँ, क्या आप ने कभी देखा है उन्हें मुसलमानों को या इसाइयों को कुछ कहते हुए ? क्या कहा, कुत्ता मालिक पर नहीं भौंकता? चलिये, आप को एक बात बताऊँ, चलते चलते ।

1400 वर्षों में इस्लाम ने 270 मिलियन जाने ली । और 100 वर्ष भी पूरे नहीं हुए तो कम्यूनिज़्म 95 मिलियन जाने लील गया है । एक मिलियन - 1,000,000

और हाँ, यह मत कहिएगा कि "इंडिया में रखा ही क्या है?" हजारों सालों से आज तक लगातार हमलावर यूं ही टाइम पास के लिए नहीं आ रहे ।


एकलव्य न तो भील थे और न ही आदिवासी ........




एकलव्य को लेकर समाज में बहुत तरह की भ्रांतियां इसलिए है ।सभी ने महाभारत की इस कथा को तोड़-मरोड़कर अपने-अपने तरीके से लिखा। एकलव्य को इस बात का कभी दुख नहीं हुआ कि गुरु द्रोणाचार्य ने उनसे अंगूठा मांग लिया। इस घटना को कुछ लोगों के समूह ने गलत अर्थो में लिया और उस अर्थ को बड़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करके समाज में विभाजन किया। इस सामाजिक विभाजन को हवा देने वाले संगठन भी कौन है यह सब जानते हैं। एकलव्य निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र थे। एकलव्य  न तो भील थे और न ही आदिवासी वे निषाद जाति के थे। महाभारत लिखने वाले वेद व्यास किसी ब्राह्मण, छत्रिय जाति से नहीं थे वे भी निषाद जाति से थे।धृतराष्‍ट्र, पांडु और विदुर की दादी सत्यवती एक निषाद कन्या ही थी। सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य की पत्नियों ने वेदव्यास के नियोग से दो पुत्रों को जन्म दिया और तीसरा पुत्र दासी का था। अम्बिका के पुत्र धृतराष्ट, अम्बालिका के पुत्र पांडु और दासीपुत्र विदुर थे। एकलव्य एक राजपुत्र थे और उनके पिता की कौरवों के राज्य में प्रतिष्ठा थी। उस समय धनुर्विद्या में गुरु द्रोण की ख्याति थी। एकलव्य धनुर्विद्या की उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहता था तब गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष धर्मसंकट उत्पन्न हुआ क्योंकि उन्होंने भीष्म पितामह को वचन दे दिया था कि वे केवल कौरव कुल के राजकुमारों को ही शिक्षा देंगे और एकलव्य राजकुमार तो थे लेकिन कौरव कुल से नहीं थे। अतः उसे धनुर्विद्या कैसे सिखाऊं?अतः द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कहा- 'मैं विवश हूं तुझे धनुर्विद्या नहीं सिखा सकूंगा। एकलव्य घर से निश्चय करके निकला था कि वह केवल गुरु द्रोणाचार्य को ही अपना गुरु बनाएगा। हताश-निराश एकलव्य एक आदिवासी बस्ती में ठहर गया। आदिवासियों या भीलों के बीच रहने के कारण एकलव्य को शिकारी या भील जाति का मान लिया गया । एकलव्य ने आदिवासियों के बीच रहकर वहां गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनाई और मूर्ति की ओर एकटक देखकर ध्यान करके उसी से प्रेरणा लेकर वह धनुर्विद्या सीखने लगा।
एक बार गुरु द्रोणाचार्य, पांडव एवं कौरव को लेकर धनुर्विद्या का प्रयोग करने अरण्य में आए। उनके साथ एक कुत्ता भी था, जो थोड़ा आगे निकल गया। कुत्ता वहीं पहुंचा जहां एकलव्य अपनी धनुर्विद्या का प्रयोग कर रहा था। एकलव्य को देखकर कुत्ता भौंकने लगा।
एकलव्य ने कुत्ते को चोट न पहुंचे और उसका भौंकना बंद हो जाए इस ढंग से सात बाण उसके मुंह में थमा दिए। कुत्ता वापिस गया, जहां गुरु द्रोणाचार्य के साथ पांडव और कौरव थे।
एकलव्य की प्रतिभा को देखकर द्रोणाचार्य संकट में पड़ गए।  उन्होंने कहा- 'मेरी मूर्ति को सामने रखकर तुमने धनुर्विद्या तो सीख ली, किंतु मेरी गुरुदक्षिणा कौन देगा?'
एकलव्य ने कहा- 'गुरुदेव, जो आप मांगें?'
 द्रोणाचार्य ने कहा- तुम्हें मुझे दाएं हाथ का अंगूठा गुरुदक्षिणा में देना होगा।'
एकलव्य ने एक पल भी विचार किए बिना अपने दाएं हाथ का अंगूठा काटकर गुरुदेव के चरणों में अर्पण कर दिया।
पिता की मृत्यु के बाद एकलव्य श्रृंगबेर राज्य का शासक बनता हैं और निषाद जाति के लोगों की एक सशक्त सेना गठित करता है ।एकलव्य जरासंध से जा मिला था। जरासंध की सेना की तरफ से उसने मथुरा पर आक्रमण करके यादव सेना का लगभग सफाया कर दिया था। इसका उल्लेख विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण में मिलता है। यादव सेना के सफाया होने के बाद यह सूचना जब श्रीकृष्‍ण के पास पहुंचती है तो वे भी एकलव्य को देखने को उत्सुक हो जाते हैं। दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए एकलव्य को देखकर वे समझ जाते हैं कि यह पांडवों और उनकी सेना के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। तब श्रीकृष्‍ण का एकलव्य से युद्ध होता है और इस युद्ध में एकलव्य वीरगति को प्राप्त होता है।

एकलव्य के वीरगति को प्राप्त होने के बाद उसका पुत्र केतुमान सिंहासन पर बैठता है और वह कौरवों की सेना की ओर से पांडवों के खिलाफ लड़ता है।

सोमवार, 25 अप्रैल 2016

जो भी है जैसा भी है बस बना रहे बनारस

 बनारस एक संस्कार है, बनारस एक संस्कृति है. बनारस की आदतें हैं, . बनारस का अपना स्वभाव है......बनारस के घाट, काशी की संस्कृति और यहां का हर रंग दुनिया को हमेशा खींचता रहा है...शायद इसलिए कि वहां तुलसी का अक्स दिखता है...  शायद इसलिए कि वहां संगीत अपनी गहराइयों के साथ मन में उतर जाता है।
 जब भी बनारस जाता हूं वहा से आने का मन नही करता। कल भी कुछ ऐसा ही था मै बनारस छोड़ रहा था कुछ उदास था और स्टेशन कि तरफ बढ़ रहा था । मैने देखा मेरे दाहिने तरफ से कुछ लोग लाश लिये जा रहे थे और बॉयी तरफ से एक बारात चली आ रही थी।  यह एक अद्भूत संगम था जीवन कि दो महत्वपूर्ण यात्राओं का एक को अभी अपने जीवन मे बहुत यात्राये करनी है तो एक अपने जीवन कि अंतिम यात्रा पर और इसपर दोनो तरफ के लोगो का एक दुसरे के प्रति सम्मान देखने लायक था। यह सिर्फ मैने बनारस मे ही देखा है। मै जब दिल्ली जाता हूं मेरे कुछ मित्र मुझसे पुछते है कि बनारस क्योटो कब बन रहा है तब मुझे ये समझ नहीं आता कि कैसे उन्हे बताउ कि बनारस अद्भूत है इसको समझने के लिये इसको जीना पड़ता है और जो एक बार बनारस को जी लेता है वो फिर इसे क्वोटो नही बनाना चाहेगा। यह मस्त मलंगो का शहर है इसे ऐसा ही रहना चाहिये ।

जो भी है जैसा भी है बस बना रहे बनारस .......


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